सार

ट्रंप प्रशासन में चीन के साथ तकनीकी प्रतिस्पर्धा बढ़ी। क्या उनके दोबारा आने से तकनीक सहयोग का जरिया बनेगी या टकराव बढ़ेगा? भारत-अमेरिका का तालमेल कितना कारगर होगा?

गरिमा मोहन, वरिष्ठ फेलो, इंडो-पैसिफिक प्रोग्राम, जर्मन मार्शल फंड ऑफ यूनाइटेड स्टेट्स द्वारा: पहले ट्रंप प्रशासन और बाद में बाइडन प्रशासन ने चीन के साथ प्रतिस्पर्धा के केंद्र में रणनीतिक तकनीकों (Strategic Technologies) को रखा। इसके साथ ही तकनीकी सहयोग अमेरिका के यूरोप और भारत जैसे साझेदारों के साथ संबंधों का मुख्य आधार बन गया। जैसे ही डोनाल्ड ट्रंप दूसरी बार राष्ट्रपति पद संभालते हैं, यह बड़ा सवाल सामने है कि उनका प्रशासन चीन के प्रति क्या रुख अपनाएगा और क्या रणनीतिक तकनीकें सहयोग का जरिया बनेंगी या टकराव का कारण?

चीन-अमेरिका के बीच तकनीकी वर्चस्व की होड़

यह स्पष्ट है कि चीन और अमेरिका वैश्विक तकनीकी परिदृश्य को आकार देने की दौड़ में हैं। पिछले प्रशासन की घरेलू नीतियों और सहयोगियों के साथ समन्वय से यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है।

ट्रांसअटलांटिक व्यापार और तकनीक पर बहस

बाइडन प्रशासन ने चीन नीति पर ट्रांसअटलांटिक समन्वय को मजबूत करने के लिए अभूतपूर्व प्रयास किए। तकनीक और आर्थिक सुरक्षा में अमेरिका और यूरोप के बीच सहयोग इस रणनीति का अहम हिस्सा बन गया। हालांकि, कुछ यूरोपीय देशों द्वारा चीन के साथ अल्पकालिक आर्थिक लाभ को प्राथमिकता देने से वॉशिंगटन में नाराजगी भी रही। फिर भी, इन वर्षों में यूरोपीय संघ की चीन नीति में बड़ा बदलाव देखने को मिला।

अब यूरोपीय संघ और चीन के संबंधों में ‘साझेदार, प्रतिस्पर्धी और प्रतिद्वंद्वी’ की पारंपरिक परिभाषा से हटकर अब प्रतिद्वंद्वी वाले पक्ष पर ज़्यादा जोर दिया जा रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध में चीन की भूमिका को देखते हुए बीजिंग को सीधा खतरा माना जा रहा है। इस तथाकथित ‘China shock’ ने यूरोपीय संघ पर दबाव बढ़ा दिया है कि वह रणनीतिक तकनीक और दूरसंचार जैसे अहम क्षेत्रों में चीन पर निर्भरता कम करे।

यही कारण है कि यूरोपीय संघ ने भारत और अमेरिका के साथ टेक्नोलॉजी और व्यापार परिषदें (Trade and Technology Councils - TTCs) गठित कीं। हालांकि, अमेरिका-ईयू TTC की अब तक चार बैठकें हुईं और AI, Quantum व हरित तकनीक (Green Tech) पर थोड़ी प्रगति हुई, लेकिन व्यापार पर कोई ठोस सफलता नहीं मिल पाई।

अब अमेरिका-यूरोप संबंधों की राह और कठिन होती जा रही है। अमेरिका ने 20 प्रतिशत टैरिफ की घोषणा की और जवाब में यूरोपीय संघ ने जवाबी कदम उठाए हैं—यानी व्यापार युद्ध की शुरुआत हो चुकी है। अमेरिकी टेक कंपनियों को यूरोप ज़्यादा रेगुलेटेड लगता है जबकि यूरोप को अमेरिकी टेक कंपनियां कम नियंत्रित नजर आती हैं। ऐसे में चीन से जुड़े मुद्दों पर व्यापार या तकनीक को लेकर सकारात्मक बातचीत की संभावना कम होती जा रही है।

भारत-अमेरिका के बीच सामरिक तालमेल

जहां यूरोप-अमेरिका समन्वय अक्सर तनावपूर्ण रहा, वहीं भारत और अमेरिका की चीन नीति में हाल के वर्षों में खासा मेल दिखा। 2020 के सीमा संघर्ष ने भारत-चीन संबंधों को बदल दिया और भारत ने घरेलू स्तर पर चीनी निवेश को नियंत्रित करने और अंतरराष्ट्रीय साझेदारों के साथ संबंध मजबूत करने जैसे बड़े कदम उठाए। ट्रंप के पहले कार्यकाल में ही भारत ने Huawei को 5G नेटवर्क से बाहर रखने में यूरोप से ज़्यादा तत्परता दिखाई थी।

सीमा विवाद के बाद भारत सरकार ने प्रेस नोट 3 लागू किया, जिसने चीनी निवेश पर सख्त प्रतिबंध लगाए, खासकर रणनीतिक क्षेत्रों, स्टार्टअप्स और पब्लिक प्रोक्योरमेंट में।

भारत-अमेरिका रक्षा व्यापार और तकनीकी साझेदारी में बीते वर्षों में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है, जिसमें को-प्रोडक्शन और को-डेवलपमेंट भी शामिल हैं। महत्वपूर्ण और उभरती तकनीकों पर पहल (iCET) को अब TRUST नाम दिया गया है, जो अंतरिक्ष, AI, क्वांटम, बायोटेक और स्वच्छ ऊर्जा में रणनीतिक सहयोग को मजबूत कर रहा है। दोनों देशों के बीच डिफेंस स्टार्टअप्स के लिए Defense Accelerator Ecosystem भी कार्य कर रहा है। अमेरिका भारत की सेमीकंडक्टर मिशन में भी भागीदार है और अमेरिकी कंपनियां इस क्षेत्र में निवेश के इच्छुक हैं।

ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद प्रधानमंत्री मोदी वॉशिंगटन यात्रा पर पहुंचे, जो सफल रही। इस यात्रा में रक्षा, ऊर्जा और तकनीक के क्षेत्र में सहयोग की पुष्टि हुई और TRUST जैसे नए कदमों की घोषणा भी हुई। TRUST का मकसद है कि अमेरिका-भारत सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में साझेदारी बढ़ाएं और संवेदनशील तकनीकों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।

चुनौतियां अभी बाकी हैं

हालांकि भारत और अमेरिका की साझेदारी मजबूत दिख रही है, लेकिन यूरोप में ट्रांसअटलांटिक गठबंधन में दरार नजर आने लगी है। व्यापार युद्ध ऐसे वक्त में शुरू हो रहा है जब यूरोप अमेरिका के बाजार पर पहले से ज़्यादा निर्भर होता जा रहा है और चीन को होने वाला निर्यात गिरता जा रहा है। इस झटके के असर में यूरोप ने अपने रक्षा खर्च को बढ़ाया है और नए साझेदारों की तलाश शुरू की है। भारत को इसका लाभ मिल रहा है, जैसा कि फरवरी में यूरोपीय आयोग अध्यक्ष और उनके आयोग के सदस्यों की ऐतिहासिक भारत यात्रा से भी स्पष्ट है। इस यात्रा में व्यापार और तकनीक को रणनीतिक सहयोग के नए क्षेत्र के रूप में चिन्हित किया गया।

नोट: यह लेख कार्नेगी इंडिया के नौवें वैश्विक प्रौद्योगिकी शिखर सम्मेलन की थीम 'संभावना' - प्रौद्योगिकी में अवसर - पर चर्चा करने वाली श्रृंखला का हिस्सा है। यह सम्मेलन 10-12 अप्रैल, 2025 को आयोजित किया जाएगा, जिसमें 11-12 अप्रैल को सार्वजनिक सत्र होंगे, जिसकी सह-मेजबानी भारत सरकार के विदेश मंत्रालय द्वारा की जाएगी। शिखर सम्मेलन के बारे में अधिक जानकारी और रजिस्टर करने के लिए के लिए https://bit.ly/JoinGTS2025AN पर जाएं।