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10 फीट का त्रिशूल, 15 किलो वजन! गाल में छेदने के बाद भी नहीं बहता खून – क्या यह सच्चा चमत्कार है?

MP News: रायसेन के उदयपुरा में  माता की भक्ति में डूबे भक्त लोहे का त्रिशूल गाल और जीभ में छेदकर पहनते हैं। 'बाना पहनना' नामक यह परंपरा आस्था है या अंधविश्वास? जानिए इस रहस्यमयी रिवाज़ के पीछे की कहानी। 

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Surya Prakash Tripathi
Published : Apr 09 2025, 08:03 AM IST
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लोहे का त्रिशूल से छेदा जाता है गाल, नहीं निकलता खून
Image Credit : Social Media

लोहे का त्रिशूल से छेदा जाता है गाल, नहीं निकलता खून

मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के उदयपुरा कस्बे में हर साल नवरात्रि के दौरान एक ऐसी परंपरा निभाई जाती है, जिसे देखकर कोई भी दंग रह जाए। इस परंपरा को स्थानीय भाषा में ‘बाना पहनना’ कहा जाता है। इसमें भक्त अपने गाल और जीभ में लोहे का त्रिशूल छेदकर मां की भक्ति में लीन हो जाते हैं।

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आस्था के साथ रहस्य भी है ये परंपरा
Image Credit : Social Media

आस्था के साथ रहस्य भी है ये परंपरा

यह परंपरा सिर्फ आस्था की बात नहीं, बल्कि एक रहस्य भी है। जहां आम इंसान कांटा चुभने पर भी दर्द महसूस करता है, वहीं यहां भक्त 10 से 15 किलो वजनी और 10 फीट लंबा लोहे का त्रिशूल गाल में छेदकर बिना किसी दर्द या खून के चलने लगते हैं।

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कैसे निभाई जाती है यह परंपरा?
Image Credit : Social Media

कैसे निभाई जाती है यह परंपरा?

यह परंपरा नवरात्रि के अंतिम दिन माता के जवारे विसर्जन के समय निभाई जाती है। विसर्जन यात्रा में शामिल कुछ विशेष भक्त ‘पंडा’ की देखरेख में अपने गाल और जीभ में लोहे का त्रिशूल (बाना) छेदते हैं। इसके बाद वे माता के गीतों पर झूमते, नाचते और डोलते हुए विसर्जन यात्रा में भाग लेते हैं।

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क्या सच में नहीं होता दर्द या खून?
Image Credit : Social Media

क्या सच में नहीं होता दर्द या खून?

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इस प्रक्रिया में खून नहीं निकलता, न ही कोई बड़ा घाव बनता है और न ही किसी मेडिकल इलाज की आवश्यकता पड़ती है। भक्त बस ‘भावूत’ यानी धूनी की राख लगाते हैं और घाव जल्दी भर जाता है। पंडा और बुजुर्ग भक्तों का कहना है कि यह माता की शक्ति और कृपा है, जिसकी वजह से कोई पीड़ा महसूस नहीं होती।

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कई पीढ़ियों से चली आ रही है परंपरा
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कई पीढ़ियों से चली आ रही है परंपरा

स्थानीय लोगों के अनुसार यह परंपरा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। पूर्वजों की भांति आज भी नई पीढ़ी के भक्त इस परंपरा को निभाते आ रहे हैं। उनके लिए यह सिर्फ एक धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि माता के प्रति समर्पण का प्रमाण है।

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भक्ति या अंधविश्वास? उठता है सवाल
Image Credit : Social Media

भक्ति या अंधविश्वास? उठता है सवाल

हालांकि आधुनिक युग में यह सवाल भी खड़ा होता है कि क्या यह सच्ची आस्था का प्रतीक है या अंधविश्वास? चिकित्सकों और वैज्ञानिकों के लिए यह प्रक्रिया हैरान कर देने वाली है, लेकिन भक्तों के लिए यह श्रद्धा का चरम रूप है।

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क्या कहते हैं जानकार?
Image Credit : Social Media

क्या कहते हैं जानकार?

कुछ सामाजिक और धार्मिक विद्वान इसे मानसिक विश्वास और आत्म-संकल्प की शक्ति मानते हैं। उनका मानना है कि शरीर की पीड़ा पर मानसिक नियंत्रण से यह संभव होता है। वहीं दूसरी ओर, वैज्ञानिक इसे नोसेबो इफेक्ट का परिणाम मानते हैं, जिसमें व्यक्ति खुद को दर्द महसूस न करने के लिए मानसिक रूप से तैयार करता है।

About the Author

SP
Surya Prakash Tripathi
सूर्य प्रकाश त्रिपाठी। 20 जुलाई 2003 से पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत। कुल 22 साल का अनुभव। 19 फरवरी 2024 से एशियानेट न्यूज हिंदी के साथ जुड़े हुए हैं। पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री के साथ इन्होंने डबल MA LLB भी किया हुआ है। इन्होंने क्राइम, धर्म और राजनीति के साथ सामाजिक मुद्दों पर लिखने की रुचि है। हिंदी दैनिक आज, डेली न्यूज एक्टिविस्ट, अमर उजाला, दैनिक भास्कर डिजिटल (DB DIGITAL) जैसे मीडिया संस्थानों में भी सूर्या सेवाएं दे चुके हैं।
 
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