सार

प्रयागराज महाकुंभ 2025 में मिट्टी के चूल्हों और उपलों की मांग बढ़ी है, जिससे स्थानीय महिलाओं को रोजगार मिला है। गंगा की मिट्टी से बने ये चूल्हे श्रद्धालुओं के लिए शुद्धता का प्रतीक हैं और महिलाओं के लिए आर्थिक स्वतंत्रता का।

प्रयागराज महाकुंभ कल्पवास 2025: हर साल माघ मेले में कल्पवासियों की उपस्थिति संगम नगरी में एक विशेष आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण करती है। इस दौरान, गंगा किनारे ठहरे श्रद्धालु अपने रोजमर्रा के जीवन में प्राचीन परंपराओं का पालन करते हुए मिट्टी के चूल्हों और उपलों का उपयोग भोजन बनाने के लिए करते हैं। इस बार कल्पवास 2025 की तैयारियों के बीच मिट्टी के चूल्हों और उपलों की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जिससे स्थानीय महिलाओं को रोजगार का बड़ा अवसर मिला है।

गंगा की मिट्टी और शुद्धता का महत्व

कल्पवास के दौरान उपयोग में आने वाले इन चूल्हों को गंगा की पवित्र मिट्टी और गाय के गोबर से बनाया जाता है। श्रद्धालु मानते हैं कि इन चूल्हों पर तैयार भोजन पूरी तरह शुद्ध और आध्यात्मिक होता है। गंगा की मिट्टी को पवित्र और जीवनदायिनी माना जाता है, और इसी मिट्टी से बने चूल्हों में पकाए गए भोजन का धार्मिक महत्व है।

उपलों की खासियत

गाय के गोबर से बनाए गए उपलों का उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है। यह पर्यावरण के अनुकूल और कार्बन उत्सर्जन रहित होता है, जिससे श्रद्धालु इसे सहजता से अपनाते हैं। यह पारंपरिक साधन न केवल प्रदूषण रहित है बल्कि भारतीय संस्कृति और परंपरा का भी प्रतीक है। गाय के गोबर से बने उपलों की मांग भी लगातार बढ़ रही है। इनका उपयोग चूल्हों में ईंधन के रूप में किया जाता है। ये पूरी तरह से प्राकृतिक और पर्यावरण के अनुकूल होते हैं, जिससे श्रद्धालु संतुष्ट रहते हैं।

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महिलाओं के लिए बना रोजगार का जरिया

इस बार इन चूल्हों और उपलों की बढ़ती मांग ने स्थानीय महिलाओं को आर्थिक रूप से मजबूत बनने का अवसर दिया है। गंगा किनारे के गांवों में महिलाएं बड़े पैमाने पर इन चूल्हों का निर्माण कर रही हैं। इस कार्य में कम लागत और अधिक मुनाफा होने के कारण महिलाएं इसे बेहतर रोजगार का माध्यम मान रही हैं।

महिलाओं की प्रतिक्रिया

सीता देवी, जो गंगा के पास के गांव की निवासी हैं, कहती हैं, "हमने कभी नहीं सोचा था कि हमारी पारंपरिक कला हमें रोजगार का इतना बड़ा अवसर देगी। अब हम अपने परिवार की आर्थिक मदद कर पा रहे हैं।" सुशीला देवी, एक अन्य महिला ने बताया कि चूल्हे और उपलों की मांग ने उन्हें आत्मनिर्भर बनाया है।

पारंपरिकता और पर्यावरण के बीच सामंजस्य

आज के समय में जहां आधुनिक गैस और इलेक्ट्रिक स्टोव का चलन है, वहीं कल्पवास के दौरान मिट्टी के चूल्हों का उपयोग परंपरा को जीवित रखने का प्रतीक है। श्रद्धालु मानते हैं कि यह शुद्धता, परंपरा और आध्यात्मिकता का संगम है। इसके साथ ही, यह पर्यावरण के अनुकूल और प्राकृतिक साधन भी है, जो जलवायु परिवर्तन के प्रति जागरूकता का संदेश देता है।

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अर्थव्यवस्था को मिला बढ़ावा

कल्पवास 2025 के आयोजन से प्रयागराज और आसपास के क्षेत्रों में छोटे व्यवसायों और स्थानीय कारीगरों को भी बढ़ावा मिला है। इन चूल्हों और उपलों के निर्माण में महिलाओं की भागीदारी ने ग्रामीण क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था को मजबूती दी है।

भारतीय संस्कृति और शुद्धता का प्रतीक

कल्पवास में उपयोग किए जाने वाले चूल्हे और उपले न केवल श्रद्धालुओं के लिए एक परंपरागत साधन हैं, बल्कि यह ग्रामीण महिलाओं के लिए रोजगार का महत्वपूर्ण माध्यम बन गए हैं। गंगा की मिट्टी और गोबर से निर्मित यह साधन भारतीय संस्कृति और शुद्धता का प्रतीक हैं। कल्पवास 2025 के इस अनोखे पहलू ने जहां आध्यात्मिकता को जीवंत रखा है, वहीं महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में भी एक बड़ा कदम उठाया है।