कर्नाटक के दावणगेरे का लोकिकेरे गांव 200 साल से दिवाली नहीं मनाता है। त्योहार के लिए जंगल गए कुछ नौजवान लापता हो गए थे। उनकी याद में गांव वाले आज भी इस त्योहार से दूर रहते हैं और इसे एक रिवाज मानते हैं।
दावणगेरे: जब पूरा देश दिवाली के जश्न में डूबा हुआ है, तब कर्नाटक के दावणगेरे तालुका का लोकिकेरे गांव इस बार भी हमेशा की तरह खामोश रहा। इस बार भी उन्होंने अपने घरों और गांव को दीयों से नहीं सजाया। कहीं भी पटाखों की आवाजें नहीं थीं। करीब दो सदियों से, यानी सात पीढ़ियों से यहां के परिवार दिवाली के जश्न से दूर हैं। इन गांववालों के लिए हर दिवाली 200 साल पहले लापता हुए नौजवानों की दर्दभरी यादें लेकर आती है।
इस गांव में ज्यादातर अनुसूचित जाति के माडिगा समुदाय, अनुसूचित जनजाति के वाल्मीकि नायक समुदाय और पिछड़े वर्ग के कुरुम्बा समुदाय के लोग रहते हैं। गांव के करीब 70% परिवारों ने कभी दिवाली नहीं मनाई है। लगभग दो सदी पहले, दिवाली के त्योहार के लिए जरूरी सामान इकट्ठा करने जंगल गए गांव के कुछ नौजवान कभी वापस नहीं लौटे। उनके इंतजार में परिवारों और गांव वालों ने उस साल दिवाली नहीं मनाई। वो लापता नौजवान फिर कभी लौटकर नहीं आए। इसलिए, उसके बाद इस गांव में कभी दिवाली के दीये नहीं जले और न ही पटाखे फोड़े गए।
अपने पूर्वजों और बड़ों के दिखाए रास्ते पर चलते हुए, लोकिकेरे के परिवार आज भी दिवाली न मनाने के अपने फैसले पर कायम हैं। पीढ़ियों से वे इसका पालन करते आ रहे हैं। आज उनके लिए दिवाली न मनाना एक रिवाज बन गया है। गांव वालों का अब यह मानना है कि दिवाली मनाने से जीवन में मुश्किलें आ सकती हैं। हालांकि, दूसरों को दिवाली मनाते देख उन्हें खुशी होती है। लोकिकेरे के गांव वालों के लिए सबसे अहम त्योहार वो है, जो वे अपने पूर्वजों की याद में मनाते हैं। गांव वाले महालय अमावस्या के दिन अपने पूर्वजों की याद में यह उत्सव मनाते हैं।
अपनी पहचान को लेकर सजग रहने वाले लोकिकेरे के लोग अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों को कितना महत्व देते हैं, यह यहां साफ दिखता है। जब पूरा देश दीयों और पटाखों के साथ जश्न में डूबा होता है, तब भी लोकिकेरे के गांव वाले अपनी परंपरा और विश्वास को बिना छोड़े सहेज कर रखते हैं।
