सार

सुप्रीम कोर्ट ने एक बेटे की याचिका पर फ़ैसला सुनाया है जो अपनी माँ के विवाहेतर संबंध से पैदा हुआ था और अपने असली पिता को जानना चाहता था। कोर्ट ने निजता के अधिकार और जैविक पिता को जानने के अधिकार के बीच संतुलन बनाते हुए फ़ैसला सुनाया।

नई दिल्ली: माँ के विवाहेतर संबंध से जन्म लेने और असली पिता कौन है यह जानने की इच्छा रखने वाले बेटे की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया है। बेटे की मांग थी कि डीएनए टेस्ट के ज़रिए उसके असली पिता का पता लगाया जाए। 20 साल पुराने इस केस में हाल ही में फ़ैसला आया है। कोर्ट ने कहा कि निजता के अधिकार के आधार पर जाँच करवाने से इनकार करने का आरोपी व्यक्ति का अधिकार और साथ ही, अपने जैविक पिता को जानने का व्यक्ति का अधिकार, दोनों को ध्यान में रखते हुए यह फ़ैसला सुनाया गया है। कोर्ट ने कहा कि वह याचिकाकर्ता के उस दावे को स्वीकार नहीं करेगी जिसमें उसने एक व्यक्ति को अपना जैविक पिता बताया है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता को उसकी माँ के पूर्व पति और कानूनी पिता का बेटा ही माना जाएगा। 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 के अनुसार, पितृत्व वैधता से निर्धारित होता है।

जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने इस केस की सुनवाई की। बेटे ने बताया कि उसे कई स्वास्थ्य समस्याएं हैं और कई ऑपरेशन करवाने पड़े हैं। वह और उसकी माँ इलाज का खर्च उठाने में बहुत मुश्किल का सामना कर रहे हैं। याचिकाकर्ता ने कोर्ट को बताया कि अगर उसे अपने जैविक पिता से गुज़ारा भत्ता मिलता है तो उसे अपने पिता का पता चल जाएगा।

23 वर्षीय युवक की माँ ने 1989 में शादी की थी। 1991 में उनकी एक बेटी हुई। 2001 में बेटे का जन्म हुआ। 2003 में उनका अपने पति से अलगाव हो गया और 2006 में उन्हें तलाक मिल गया। इसके बाद, उन्होंने अपने बेटे के जन्म प्रमाण पत्र में पिता का नाम बदलने के लिए कोच्चि नगर निगम से संपर्क किया। महिला ने अधिकारियों को बताया कि उसका विवाहेतर संबंध था और इसी संबंध से बेटे का जन्म हुआ है। अधिकारियों ने कहा कि कोर्ट के आदेश के बिना जन्म प्रमाण पत्र में बदलाव नहीं किया जा सकता, जिसके बाद महिला ने कानूनी लड़ाई शुरू की।

2007 में कोर्ट ने कथित पिता का डीएनए टेस्ट करवाने का आदेश दिया। लेकिन, 2008 में इस व्यक्ति ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर इस आदेश पर रोक लगवा दी। 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि वैध विवाह के दौरान या विवाह के 280 दिनों के भीतर पैदा हुए बच्चे को पति का कानूनी संतान माना जाता है और डीएनए टेस्ट सिर्फ़ इस बात की पुष्टि के लिए किया जा सकता है। निचली अदालत ने कहा कि बच्चे के जन्म के समय माँ और पति के बीच वैध विवाह होने के कारण डीएनए टेस्ट की ज़रूरत नहीं है।

2015 में, बेटे ने गुज़ारा भत्ता पाने के लिए परिवार न्यायालय में याचिका दायर की। उसने कहा कि उसे अपने कानूनी पिता से अपने इलाज और पढ़ाई का खर्च नहीं मिल रहा है। इसके बाद मामला फिर से कोर्ट में पहुँचा। कथित पिता ने हाईकोर्ट में इस फ़ैसले को चुनौती दी। 2018 में हाईकोर्ट ने बेटे के पक्ष में फ़ैसला सुनाया। फ़ैसले में कहा गया कि बच्चे को अपने पिता से गुज़ारा भत्ता पाने का अधिकार है, चाहे उसका जन्म वैध हो या अवैध।

इसके बाद यह व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। कथित पिता के वकील रोमी चाको ने कहा कि बेटा यह साबित करने में नाकाम रहा कि बच्चे के जन्म के समय माँ और पति के बीच अनबन थी। चाको ने कहा कि बेटा किसी तीसरे व्यक्ति से गुज़ारा भत्ता नहीं मांग सकता और डीएनए टेस्ट का आदेश नहीं दिया जा सकता। वहीं, बेटे के वकील श्याम पद्मन ने दलील दी कि पितृत्व और वैधता अलग-अलग अवधारणाएं हैं। उन्होंने कहा कि भले ही बच्चा अवैध हो, लेकिन उसे अपने जैविक पिता से गुज़ारा भत्ता पाने का अधिकार है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि यह सच है कि बेटे के जन्म के समय उसकी माँ शादीशुदा थी। कोर्ट ने कहा कि अगर यह मान भी लिया जाए कि माँ का विवाहेतर संबंध था और इसी संबंध से बेटे का जन्म हुआ, तो भी यह वैधता की धारणा को बदलने के लिए काफ़ी नहीं है। पीठ ने कहा कि बेटे को अपने असली माता-पिता को जानने का अधिकार और कथित पिता के निजता के अधिकार, दोनों पर एक साथ विचार किया जाना चाहिए। कोर्ट को सभी पक्षों की निजता और सम्मान के अधिकार की रक्षा करनी चाहिए। दूसरी ओर, कोर्ट को बच्चे के हितों का भी ध्यान रखना चाहिए।

कोर्ट ने कहा कि किसी व्यक्ति को ज़बरदस्ती डीएनए टेस्ट करवाने के लिए मजबूर करना उसके निजी जीवन को सार्वजनिक जाँच के दायरे में लाना है। इससे व्यक्ति का सम्मान और सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल हो सकती है। यह उसके मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक जीवन पर भी असर डाल सकता है। इसीलिए, किसी व्यक्ति को डीएनए टेस्ट करवाने से इनकार करने का अधिकार है।

कोर्ट ने कहा कि बच्चे की माँ इस मुकदमे से जुड़ी हुई है। जब कोई व्यक्ति अपनी माँ की भावनाओं को नज़रअंदाज़ करके पितृत्व पर सवाल उठाता है, तो इसके परिणामों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। ऐसा अधिकार देने से इसका दुरुपयोग कमज़ोर महिलाओं के ख़िलाफ़ किया जा सकता है। उन्हें कोर्ट और समाज में अपमानित होना पड़ सकता है। इससे उन्हें मानसिक पीड़ा हो सकती है। उनके सम्मान और निजता के अधिकार पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। पीठ ने कहा कि दो दशक से ज़्यादा समय से चल रहे इस केस का सभी पक्षों पर असर पड़ा है और इसे ख़त्म किया जाना चाहिए।